Saturday 2 December 2017

भानाधार



हम कभी इतिहास को ३६० डिग्री से देखने का दावा नहीं कर सकते , करना उचित भी नहीं है , क्योंकि कोई भी घटना कई पक्षों से मिल कर बनी होती है .... प्रस्तुत लेख को आप कई तरह से परिभाषित कर सकते हैं , आप इसे लोक कहानी कह सकते हैं , आप इसे बिखरा हुआ इतिहास लिख सकते हैं और आप इसे अन्धविश्वास भी कह सकते हैं ... मैं एक हिन्दू नास्तिक के रूप में इसे शुद्ध लोकज्ञान की श्रेणी में रखता हूँ .....



मुझे मिले कुछ बिखरे हुए साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि गढ़वाल क्षेत्र में पहली शताब्दी से बौध धर्म का प्रभाव था , लेकिन यह प्रभाव हर्ष साम्राज्य के आने तक कम हो गया .. गढ़वाल क्षेत्र में भी बौध धर्म का सामना वैष्णव धर्म से ही था ,... वैष्णव मंदिरों को प्रतिस्थापित कर बौध मंदिरों की स्थापना इसका एक परिणाम था ... 17-18 शताब्दी तक अस्तित्व में रहे विष्णु मठ ( जिसका स्थान वर्तमान श्रीकोट तथा नरकोटा के बीच कहीं होना चाहिए ) में बौध तथा वैष्णव आचार्यों का सामान सत्कार था ... इसका परिणाम हमें उस भोत तांत्रिक के श्रीनगर में होने होने के साक्ष्यों में मिलता है , जिसने गढ़वाल की राजनीती को भी प्रभावित किया ..... बौध धर्म ने कभी खस मंदिरों पर अधिकार नहीं किया , जैसे केदारनाथ आज भी खस्य मंदिर के रूप में व्यवस्थित है ..... ऐसा प्रतीत होता है कि बौध और वैष्णवों के बीच के शास्त्रार्थ में कभी शैवो तथा शक्तों ने प्रतिभाग किया ही नहीं ... बौध तंत्र शाखा ने भी शैव तथा शाक्त तंत्रों को आधार बना कर , इन प्राचीन मंदिरों को इनके ही स्वरुप में स्वीकार कर लिया .... कुछ भोट कथाओं में बुधान ( बुगानी ) और काली  का उल्लेख मिलता है ...धारी मंदिर क्षेत्र  गोरखाली के समय तक भोट व्यापारियों के लिए एक आश्रय स्थल के रूप में था , जहाँ उनकी ,माया देवी का यंत्र भी था .. यही माया देवी के यंत्र के ऊपर प्राचीन धारी मंदिर तथा वर्तमान बांध अवस्थित होना चाहिए .......




खैर ... हम अभी अपना ध्यान भानाधार पर केन्द्रित करते हैं ... भानाधार शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है "भाना" और "धार" ....भांडा शब्द से बर्तनों की और संकेत तथा धार शब्द से पहाड़ का कौना की और संकेत होता है ...गढ़वाल के इतिहास को पढ़ते समय मेरे समक्ष यह प्रश्न था कि इस विशेष भौगोलिक स्थिति वाले छोटे से गाँव के एतिहासिक पक्ष के अध्यन हेतु सामग्री कहाँ से प्राप्त की जाये ...मुझे ये सामग्री एशियाटिक सोसाइटी , मोलाराम की रचनाओं के अंश तथा ग्रामीण  प्रचलित कहानियों में मिली....बिखरे हुई शोध सामग्री के बावजूद जो दृश्य उभर कर आया वो भोगौलिक परिस्थिति के अत्यधिक अनुकूल है ... इसके बाद ही मेने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया ...भानाधार की स्थिति अगर आप देखे तो अलकनंदा के बहाव के विपरीत चलने पर  पंचभैया खाल के बाद जैसे ही रुद्रप्रयाग घाटी खुलती है , भानाधर के धार से इस घाटी के एक  वृहद् क्षेत्र और मार्गों पर नजर रखी जा सकती है .... इसके साथ ही यह धार हरियाली मंदिर क्षेत्र के अंतर्गत होना चाहिए ...पैदल  हरियाली मंदिर पहुचने के लिए पुनार,बरसू ,बौंठा जैसे गाँव से गुजरना पड़ता है ....हमारी पहली कहानी भी इसी से सम्बंधित है ....


श्रीनगर एक राजनीतिक तथा व्यापारिक केंद्र था , जो सहारनपुर , कनखल तथा भोट क्षेत्र को जोड़ने के मार्ग के बीच में स्थित एक विस्तृत घाटी है .... गढ़वाल राज्य को एकजुट करने के समय यह ध्यान रखा गया था कि प्राचीन मंदिरों के क्षेत्रों को राजा अपने राजस्व के अंतर्गत नहीं लेगा .....इन मंदिरों में बद्रीनाथ ( जिस पर भोट तथा ब्राह्मण सामान अधिकार रखते थे ) , केदारनाथ ( जो खस जाति का प्राचीन मंदिर था , तथा खस जाति ही यहाँ कि पंडित होती थी ) , शाक्त मंदिर जिनमे बौध तथा ब्राह्मण दोनों ही धर्मों के लोगों की सामान आस्था थी ... इन्ही शक्ति मंदिरों में एक मंदिर था जसोली का हरियाली मंदिर ....हरियाली और विष्णुमठ १०वीं शताब्दी के वे बौध मंदिर-शक्ति थे जिन्हें प्राचीनकाल से ही शक्ति के केंद्र के रूप में मान्यता थी,,, बौध धर्म जब यहाँ शकों के साथ आया तो ये मंदिर माया देवी के मंदिर के रूप में तंत्र साधना के केंद्र बन गए ... एक और प्रसिद्ध मंदिर कालीमठ भी इसी प्रकार के शक्ति केंद्र में से एक है ..... हो सकता है इनका नवीन इतिहास कनफड़ा बाबाओं तथा वैष्णव आचार्यों के प्रभाव के बाद परिवर्तित हुआ हो .... लेकिन इस बात के पर्याप्त तर्क हैं कि ये मंदिर बौधकाल के पूर्व से ही यहाँ थे , जिन्हें बौध की तंत्र शाखा ने भी शक्ति के केंद्र के रूप में मान्यता दी .....




जशोली की हरियाली देवी को गढ़वाल के राजा ने आधी धनपुर पट्टी तथा कुछ हिस्सा देवलगढ़ का भी दिया होगा .... जब यात्राकाल में भोट क्षेत्र के व्यापारी अपने समूहों के साथ श्रीनगर के लिए निकलते , तो वे तारा देवी ( विष्णु मठ )  तथा जशोली देवी ( हरियाली देवी ) के लिए भी हिस्सा साथ रखते .... हरियाली देवी वर्ष के नियत समय पर भानाधार में भोट मैतियों का इन्तजार करती ,,, जैसे ही ज्वार क्षेत्र और पंखुंडा से भोटों की व्यापारिक जात्रा सुमेरपुर पहुचती पुनाड या बरसू गाँव में रुकी हरियाली देवी के ढोल दमाऊ बजने लगते ... जिनकी आवाज भानाधार के तत्कालीन कलेक्टर जाति तक पहुचती और यहाँ  देवी के स्वागत में बर्तनों को बजाय जाता ....इन बर्तनों की आवाज इतनी तेज होती कि पंचभैया खाल ( उस समय इसका नाम बौध मत के समीप होना चाहिए तथा जहाँ तक मेरा अनुमान है ये बधानी या बधान होना चहिये , हो सकता है कोई गाँव आज भी यहाँ इन नामो का भ्रंश हो ) पहुचती थी .... जब भोट भानाधर पहुचते तो ईष्ट हरियाली देवी भी वहां पहुचती , देवी अपना हिस्सा मार्ग-कर के रूप में प्राप्त करती थी ... अनुमानत यह कुल माल का १/१० होना चाहिए , क्योंकि दाशान जैसे शब्दों का प्रयोग अहमे लोक गाथाओं में मिलता है .... देवी को कर चुकाने के बाद यह व्यापारी श्रीनगर में कोई कर नहीं देते थे .... हरियाली भी सिर्फ अपने मैती जाति के भोटों से ही कर लेती बाकि जाति के लोग अपनी परंपरा के अनुसार ही कर चुकाते थे ( कुछ कर मुक्त भी थे , जैसे बद्रीनाथ के पण्डे , मक्कुमठ के खाश पण्डे ) .....


देवी के भाण्डों (बर्तनों)  के स्थान के कारन यह क्षेत्र भानाधार कहलाया ...यह प्रथा बौध मत के प्रभाव के शून्य हो जाने पर भी चलती रही ... कालांतर में  कठेथ गर्दी के समय भी पट्टी नागपुर के वीर सिपाई पुरिया नैथानी के नेतृत्व में जब यहाँ से गुजरे तो भानाधार पर बर्तन बजा कर आगे सूचना दी गयी ( लेकिन इसके प्रमाण  हमारे पास नहीं है , सिर्फ कहानियो में ही इसका जिक्र है ) .... गोर्ख्याली के समय इस क्षेत्र को जशोली की देवी के प्रभाव क्षेत्र से हटा कर , रुद्रप्रयाग बाजार में नेपाली रानी के चौधरियों के अंतर्गत कर दिया गया ... रानी की एक धर्मशाला रुद्रप्रयाग में थी , जिसे शायद बाद में वापस बनाया गया ,,,लेकिन चौधरियों का परिवार आज भी यहाँ मौजूद है .... इसके आलावा भानाधार के पास कहीं एक सराय भी थी जो संगम क्षेत्र अथवा पुनाड गाँव से दूर थी ...यह सारे व्यापारियों तथा ऊँचे ओहदे के लोगों के मनोरंजन का स्थान रहा होगा , जहाँ हिमाचल की राजकुमारी के साथ आये खुबसूरत नृत्य करने वाले जाति के लोगों को बसाया गया होगा((उल्लेख मौलाराम ने किया है )) .....



ब्रिटिश काल में यह हरियाली देवी के द्वारा कर की उगाही बंद हो गयी . भोत यात्रियों का यहाँ से आना जाना भी बंद हो गया .... इसी काल में कहते हैं धारी देवी के नये रूप का अवतरण भी इस क्षेत्र में हुआ.... विष्णु मठ पूर्णत समाप्त हो गया तथा यहाँ बचे अंतिम बौध लामाओं ने भी तिब्बत की और प्रस्थान किया .... लेकिन एक लोक कहानी जशोली क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गयी .... भानाधार में निवास करने वाले लोगों को बाद में भी यहाँ से गुजरती हरियाली की डोली के स्वप्न आते रहे ... इसे ही लोगों ने अदृश्य डोली का नाम दिया .... यह अदृश्य डोली और कुछ नहीं मार्ग-कर लेने यहाँ पहुचने वाली हरियाली देवी की उस प्रथा का बचा अंश है , जिसे शायद बौध प्रभाव के बाद से गोर्ख्याली तक निभाया गया ,,,, इस पर अधिक शोध अभी किया जाना है .... 

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