
देवलगढ़ का मंदिर कत्यूर शैली का बना है अर्थात पंवार वंश की राजधानी होने का गौरव इसे जरुर प्राप्त है किन्तु इसके निर्माता अवश्य ही खस ( शक) अथवा कत्यूर थे ... वैसे मैं अपने विचार से इस क्षेत्र को खस राजाओं का केंद्र अधिक पाता हूँ ...क्योंकि इस क्षेत्र के आसपास आज भी आपको स्वयं को खस कहने वाले लोग मिल जायेंगे ... ये बात किसी से छुपी नहीं है कि गढ़वाल का क्षत्रिय अपने को राजपूत कहलाना अधिक पसंद करता है बजाए खस के ..जबकि पहाड़ के डीएनए में खस (शक) जाती का डीएनए बड़े गहरे से जुड़ा होना चाहिए ...इस क्षेत्र में हूणों के राज होने पर मुझे आपत्ति है ...क्योंकि अगर इस क्षेत्र में हूणों का राज्य होता तो अवश्य ही ये क्षेत्र आज भी तिब्बती मूल के लोगों का होता ...क्योंकि ये मानना बड़ा ही कठिन है कि हूणों ने इस उपजाऊ क्षेत्र को छोड़ तिब्बत में रहना पसंद किया हो .. हाँ शकों और हूणों अथवा कुनिंदों और हूणों के बीच व्यापार के प्राचीन चिन्ह आज भी गढ़वाल राज्य में देखने को मिल जाते हैं ...
देवलगढ़ क्षेत्र को अभी तक दूसरे क्षेत्रों के इतिहास के पूरक के रूप में ही देखा गया है ....लेकिन मेरा मानना है अगर यहाँ खुदाई की जाती है तो हमें मानव के प्राचीन बसावट के चिन्ह मिलने के भी आसार हैं .... इस पोस्ट में मई इतनी ही जानकारी दे रहा हूँ ... आगे इस विषय पर विस्तार पर लिखूंगा ...
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