Tuesday 12 December 2017

अष्ट क्षत्रिय :: प्रथम नागवंश ( नेगी )


गढ़वाल का इतिहास क्षत्रियों की तलवारों से बना है .... भले यह इतिहास इतना धुंधला है कि  आज कुछ भी ३६० डिग्री के दृष्टिकोण से नहीं कहा जा सकता ..लेकिन इतिहास के बिखरे पन्नों से कुछ कहानियां निकलती हैं, हम उसमे अंश खोज रहे हैं ...


प्राचीन शास्त्रों और महाकाव्यों में हिमालय में राज्य करने वाली नागवंशी जनजाति का उल्लेख होता है ....इस नागवंशी जाति का मूल सही से बताना मुश्किल काम है ...  क्योंकि हम बात कर रहे हैं मोर्य काल से पहले कि ... मेरा विश्वास है कि कालसी का अशोक का शिलालेख इस बात की और संकेत करता है कि  एक स्थाई राज्य इस क्षेत्र में था ... अगर राज्य था तो राजा रहे होंगे ..... राज करने वाली पूरी जाति रही होगी .... महाभारत में बाणासुर का उल्लेख है .... बाणासुर एक असुर था ... निश्चित ही आर्यों तथा असुरों के बीच इस क्षेत्र में युद्ध हुए ... और विजय आर्य ही रहे ... असुरों के बेटी उखा का मंसिर इस बात का प्रमाण है ... असुरों को हराने के बाद जिस आर्य जाति ने इस क्षेत्र में राज्य किया वह थी नाग जाति ... ये नाग जाति उस काल से आज तक अपना अंश इस क्षेत्र में लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी आगे सौंप रही है ... हाँ आज स्वयं को मैदानी कहने की दौड़ में नागवंशी स्वयं को नागवंशी कहने में हिचकते हैं , और कई बार नाराज भी हो जाते हैं ...


असल में गढ़वाल क्षेत्र में शकों ( खासों )  के आने से पूर्वा नागों एकक्षत्र राज्य था ... नागों में कृष्ण की पूजा नाग के अवतार में की जाती थी ,.. सेमुमुखेम जैसे नाग मंदिर आज भी उस प्रथा के अंश हैं ....वर्तमान में नेगी जाति की कुछ उपजातियों में हम नागवंशी मूल को प्राप्त कर सकते हैं ... जब शक इस क्षेत्र में आये तो उन्होंने यहाँ के पूर्व जाति के कुछ अधिकारों को ज्यूँ का त्यूं स्वीकार किया ... शको ने यह कार्य पूरे भारत में किया ... क्योंकि नागो में ब्राह्मणों की व्यवस्था नहीं थी तथा पूजा कार्य स्वयं नाग जाति द्वारा ही किया जाता था अत  नागों में क्षत्रिय ब्राहमण भेद नहीं था ... नागवंशी गढ़वाल में भेद मात्र आर्य तथा द्रविड़ ( असुर ) जनजाति का रहा होगा ....
शकों ने पंडा प्रथा का यहाँ  प्रचलन किया ... तथा क्षत्रिय खस के साथ साथ ब्राह्मण खश भी अस्तित्व में आये ... नागवंशी लोगों की संस्कृति में शकों ने हस्तक्षेप नहीं किया तथा उनके विशेषाधिकारों को बरक़रार रखा ...  कालांतर में विवाह सम्बन्ध भी हुए होंगे ...



राजा कनक पाल के साथ जब मैदानी राजपूत आये तो उन्होंने स्वयं खस क्षत्रियों से भिन्न पाया ...इसका एक कारन दोनों के मूल स्थानों में अंतर था ...खस मध्य एशिया की एक जनजाति का अंश थे तो राजपूत आर्यों का ...  लेकिन नागों का मूल आर्य होने के कारन बाहरी राजपूतों ने नागों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये...इसका एक और कारन यह था कि नागों को खसों के वक़्त से ही विशेषाधिकार प्राप्त थे ...  विशेषाधिकार प्राप्त जाति के साथ सम्बन्ध बनाये बिना बाहरी राजपूतों के लिए इस क्षेत्र में स्थापित होना मुश्किल था ... इसलिए राजपूत क्षत्रिय राज में  भी इस प्राचीन जाति के विशेषाधिकारों को बनाया रखा गया ... कालांतर में कई राजपूत जातियां गढ़वाल में आई ... जिन्हें नेगियों के साथ विवाह सम्बन्ध के कारन नेगियों में शामिल कर लिया गया ... जम्मु , हिमाचल तथा नेपाल से भी प्राचीन नागवंशी जातियों का आगमन गढ़वाल में हुआ जिन्हें भी नेगियों में शामिल कर लिया गया ... इस प्रकार से ये नागवंशी नेगी गढ़वाल के इतिहास में सबसे प्राचीन जनजातियों में से एक हो सकते हैं ...


नेगी का अर्थ ---

नेगी का अर्थ नागवंशी से नहीं है ... न ये नाग का भ्रश है ... ये भी एक संयोग मात्र है कि कई नेगी नागवंशी है ... असल में नेगी शब्द फारसी या तुर्की जुबान के नागी से निकला है .... जिसका अर्थ होता है " विशेषाधिकार प्राप्त " ..... क्योंकि नागवंशियों को पंवार राज में भी विशेषाधिकार प्राप्त थे तथा ये राज व्यवस्था के अहम् पदों पर थे , इन्हें फारसी में नागी शब्द दिया गया होगा ... जम्मू या हिमाचल में भी नागवंशी जातियों को विशेषाधिकार के कारन ही नेगी नाम दिया गया होगा .... लेकिन या सुनिश्चित है कि नेगी शब्द 1000 ad से पुराना नहीं है ... कालांतर में जब पडियार नेगी ( दिल्ली से ) , पुण्डीर नेगी ( सहारनपुर से ) गंग्वादी नेगी ( मथुरा से ) आये तो इन्हें नेगियों के सामान ही कुछ विशेषाधिकार राजमहल में प्राप्त हुए ... जिस कारन नागवंशी नेगियों से भी इनके वैवाहिक सम्बन्ध बने...तथा इन सभी करीब 30 उपजातियों ने मिल कर प्रमुख नेगी जाति का रूप लिया ..(( सभी जातियों का उल्लेख यहाँ करना कठिन है , किन्तु सभी के मूल स्थान तथा गढ़वाल आने का समय उपलब्ध है ))

Saturday 9 December 2017

नागपुर-पट्टी के निरोला बामन

निरोला-गंगाडी , सरोलों और गंगाडी ब्राह्मणों के बीच अंतर किस प्रकार हुआ ?



चांदपुर गढ़ के समय राजपूत जमाई राजा के साथ आये गौड़ ब्राह्मणों ने पुराने ब्राह्मण मंत्रियों की जगह ले ली .... ये पुराने ब्राह्मण मंत्री पूर्व में मैदानों से आये थे ... इनमे अधिकाशत गौड़ ब्राह्मण ही थे.... लेकिन पहाड़ी जलवायु तथा खस राजा के प्रभाव में इन गौड़ ब्राह्मणों ने मांसाहार प्रारंभ कर दिया .... जब चांदपुर का शासन राजपूत क्षत्रिय जमाई के पास आया तो उसने अपने साथ आये नए गौड़ ब्राह्मणों को पुरोहिती तथा रसोई का कार्य दे दिया ... यह नागपुर के ब्राह्मणों के लिए अपमान था लेकिन उस समय क्योंकि राजा विजय अभियान में निकला हुआ था , तथा नागपुर के खस क्षत्रिय सेनापतियों का वर्चस्य अभी भी बरक़रार था इसलिए नागपुरिया ब्राह्मणों के विद्रोह को अधिक तवज्जो नहीं मिली ..... नौटी नाम के गाँव में बसे नए राजपुरोहित गौड़ ब्राह्मणों ने नौटियाल नाम ले लिया तथा नागपुरिया गौड़ ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध बनाने से इंकार कर दिया ... नौटियाल ब्राह्मण नागपुरिया ब्राह्मणों को गौड़ नहीं मानते थे तथा मांसाहार के साथ साथ दुमागी ( खस क्षत्रियों से अंतर जातीय विवाह ) का आरोप भी लगाते थे .... लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी नए गौड़ ब्राह्मण चांदपुर गढ़ में पुराने नागपुरिया ब्राह्मणों का न तो मान कम कर सके न ही उनकी पुरोहिताई को हड़प सके ..... इसका एक बड़ा कारण समृद्ध नागपुर पट्टी थी जो चांदपुर गढ़ का आर्थिक आधार थी....


कालांतर में राजधानी को देवलगढ़ तथा बाद में श्रीनगर ले जाया गया ...वैसे श्रीनगर ६ वीं शताब्दी के पूर्व से ही प्रमुख क्षेत्र था , लेकिन इसका महत्त्व ब्रह्मपुर के व्यापारिक राजधानी के रूप में अधिक था ..... इस समय नौटियाल ब्राह्मण तथा उनके सम्बन्धी ( जिनके साथ उन्होंने विवाह सम्बन्ध बनाये ) देवलगढ़ और श्रीनगर में प्रमुख स्थान पर आ गए ... यही नहीं स्थानीय ब्राह्मण जातियों के साथ विवाह संबंधों के द्वारा  उन्होंने श्रीनगर क्षेत्र में भी अपना प्रभाव जमा लिया ...  इसी काल के आस पास श्रीनगर क्षेत्र में कब्याकुंज ब्राह्मणों का उदय होता है और चौथोकी ब्राह्मणों ( डोभाल ,बहुगुणा , उनियाल तथा डंगवाल  ) तथा गढ़वाल के एकमात्र कायस्थ ब्राह्मणों नैथानियों का प्रभाव श्रीनगर में बड़ने लगता है .....  नागपुर की पुराणी गौड़ ब्राह्मण जातियों ( बेंजवाल , किमोठी , मैकोटी , सिलवाल इत्यादि) का राजा के दरबार में प्रभाव समाप्त प्राय हो जाता है ....


श्रीनगर की राजनीती में बाहर से व्याह कर आई रानियों तथा उनके राजपूत भाइयों का ही समय समय में प्रभाव रहा ... ब्राह्मण जातियों में नौटियाल ब्राह्मण अभी भी राजपुरोहित थे , तथा उनके द्वारा अपने सम्बन्धियों को राजा की रसौई का कार्य सौंपा गया ....  चौथिकी ब्राह्मणों ने मंत्रिपदों पर अधिकार जमा लिया तथा नैथानियों का सचिवालय पर एकाधिकार लम्बे समय तक रहा ..... रसोई सँभालने वाले ब्राह्मणों ने स्वयं को रसोड़ा ( बाद में सारोला ) नाम से पुकारना शुरू कर दिया... श्रीनगर दरबार में हुआ ये विभाजन धीरे धीरे नागपुर पट्टी के सामाजिक संबंधों को बिगाड़ने लगा ....सामाजिक कार्यों में सारोला ब्राह्मणों ने भात का बहिष्कार करना प्रारंभ कर दिया ....राजदरबार में प्रभाव होने तथा नागपुर की सम्पन्नता के कम होने के कारन राजपूत तथा खासों ने भी धीरे धीरे सरोलों के इस स्वघोषित अधिकार को मान्यता देना प्रारंभ कर दिया .... इससे नागपुरिया ब्राह्मणों के सामाजिक अधिकारों में भी कमी होने लगी ....  यही नहीं सारोला ब्राह्मणों ने सारोला तथा गंगाडी नाम दे कर इस विभाजन को स्पष्ट कर दिया .... ((( इसका एक कारन सरोलाओं का ऊँचे पर्वतों में बसना तथा एनी ब्राह्मणों का गंगा के किनारे बसना था ) ...


नागपुरिया ब्राह्मणों ने इस अपमान को गंभीरता से लिया तथा अपने भात को अलग कर दिया .. सरोलों के प्रतिकार में इन्होने अपना नाम निरोला दिया ... नागपुर पट्टी में धीरे धीरे निरोला ब्राह्मणों के सम्मान में सारोला ब्राह्मणों ( रतुडा इत्यादि के निवासियों ) से अधिक इजाफा भी हुआ ,,,,,,लेकिन राजगुरु नौटियाल द्वारा बद्रीनाथ की पंडा बंटाई को अपने ही सगे सम्बन्धियों के बीच बाँटने का काम भी हुआ ... जिसने इन संबंधों को अधिक जटिल बना दिया ... यही नहीं राजगुरु नौटियाल द्वारा बद्रीनाथ के प्राचीन खस पंडितों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उन्हें भी सारोला चारी दी गयी...



नागपुर के निरोला-गंगाडी आज भी इस प्राचीन घटना के कारन अंतर-वैवाहिक संबंधों को पूर्णत नियंत्रित करते हैं .... इन जातियों की सूची  निम्नलिखित है  --

1) गौड़ निरोला  ब्राह्मण ---  किमोठी , सेमवाल , दर्मवॉर , मंगवाल , खौली , थालवाल ,धमक्वाल , जम्लागी ,                                                   बरम्वाल , गर्सरा , कंडारी , बमोला , संगवाल ,पोल्दी , मिस्सेर्स

२)  द्रविड़ निरोला  ब्राह्मण -- मैकोटा , थलासी

३)  कान्यकुब्ज निरोला ब्राह्मण  -- बैंजवाल , कांडयाल , द्याल्खी

४) कोरंकता निरोला ब्राह्मण --  सिलवाल

५) सारस्वत निरोला ब्राह्मण -- पुरोहित , फलाटा ((( जम्मू के शैव संप्रदाय या कौल संप्रदाय ) 

६) कुमोनी जोशी निरोला ब्राह्मण -- गुग्लेता


  इन अधिकांश जातियों के मूल स्थान विवादस्पद हैं , इसका एक कारन इनका सबसे पहले मैदान से पहाड़ में पहुचना रहा होगा ... नागपुर की समृद्ध पट्टी में इन्होने अपना विस्तर किया .. और कालांतर में राजसत्ता से वंचित हुए होंगे ...

Friday 8 December 2017

गढ़वाली संगीत में एक नया मुकाम

"...मित्र पाण्डवास... अपने अल्प ज्ञान से यही कहूँगा आपने हमें..हमारी पूरी उत्तराखंड सभ्यता को अंतर्राष्ट्रीय मंच में प्रतिष्ठापित करने की और पहला कदम बड़ा दिया है ..आपने हमारे पुरखों की सम्पदा को उत्कृष्ठ और नवाचार के रूप में प्रस्तुत कर एक अभूतपूर्व कार्य किया है ... मुझे लगता है सभ्यता के प्रवाह में जब बहुत सा पानी अलकनंदा में बह चूका होगा तो आपके संघर्ष और प्रयासों को आने वाली पीढियां अपनी धरोहर के रूप में संजोयेंगी और इस पर गर्व करेंगी .....कोटी कोटी नमन ऋषि पाण्डवास " --- गौरव नैथानी



ये रचना ये कला जैसे ही सुनी मै बैठे बैठे ही कुणाल डोभाल के साथ केदारनाथ यात्रा मार्ग पर हुई चर्चा में वापस डूब गया ... जो शब्द उसने कहे थे ....जो उसका गढ़वाली और गढ़वाली संगीत के साथ जुडाव है ...उसका दृष्टिकोण है ...जो उसने मुझे शब्दों में बताया था और जिन शब्दों से मै रोमांचित हो गया था ... आज इस नयी प्रस्तुतिकरण में डोभाल भाइयों ने वो रोमांच शब्दशः प्रस्तुत कर दिखा दिया कि पहाड़ी बादल सिर्फ गरजते नहीं बरसते ही बरसते हैं ... ...
शब्द अकसर भावनाओं को सही सही व्यक्त नहीं कर सकते ...अभी यही मेरे साथ है ...Soudamini Venkatesh (मिनी) की अवाज मुझे पाण्डवास स्टूडियो के उस दिन की यादों में वापस ले गयी जब इतनी श्रेष्ठ कलाकार को जो भारत की संस्कृति से बड़े गहराइयों से जुड़ी हैं, मेने सबसे जमीन पर बैठे एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही रियाज करते देखा था ...ढोलक पर अनुज सलिल डोभाल की थिरकती अंगुलियाँ और सौदामनी की ह्रदय की गति को नियंत्रित करती आवाज ...पाण्डवास ने ये सब इस एक विडियो में पिरो दिया है...
7 मिनट के इस विडियो में भ्राता ईशान डोभाल और कुनाल डोभाल की वो कई रातें घुली हैं जो उन्होंने गढ़वाली संस्कृति और संगीत के लिए समर्पित की हैं ... ये मै महसूस कर सकता हूँ कि तमाम आलोचनाओं को साथ रख हमेशा हँसते हुए चेहरे के साथ अपने काम में लगा रहा कितना कठिन है ... लेकिन पाण्डवास ने ये कर दिखाया ...और अभी तो पहाड़ में चढाई बस शुरू हुई है ...

Saturday 2 December 2017

भानाधार



हम कभी इतिहास को ३६० डिग्री से देखने का दावा नहीं कर सकते , करना उचित भी नहीं है , क्योंकि कोई भी घटना कई पक्षों से मिल कर बनी होती है .... प्रस्तुत लेख को आप कई तरह से परिभाषित कर सकते हैं , आप इसे लोक कहानी कह सकते हैं , आप इसे बिखरा हुआ इतिहास लिख सकते हैं और आप इसे अन्धविश्वास भी कह सकते हैं ... मैं एक हिन्दू नास्तिक के रूप में इसे शुद्ध लोकज्ञान की श्रेणी में रखता हूँ .....



मुझे मिले कुछ बिखरे हुए साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि गढ़वाल क्षेत्र में पहली शताब्दी से बौध धर्म का प्रभाव था , लेकिन यह प्रभाव हर्ष साम्राज्य के आने तक कम हो गया .. गढ़वाल क्षेत्र में भी बौध धर्म का सामना वैष्णव धर्म से ही था ,... वैष्णव मंदिरों को प्रतिस्थापित कर बौध मंदिरों की स्थापना इसका एक परिणाम था ... 17-18 शताब्दी तक अस्तित्व में रहे विष्णु मठ ( जिसका स्थान वर्तमान श्रीकोट तथा नरकोटा के बीच कहीं होना चाहिए ) में बौध तथा वैष्णव आचार्यों का सामान सत्कार था ... इसका परिणाम हमें उस भोत तांत्रिक के श्रीनगर में होने होने के साक्ष्यों में मिलता है , जिसने गढ़वाल की राजनीती को भी प्रभावित किया ..... बौध धर्म ने कभी खस मंदिरों पर अधिकार नहीं किया , जैसे केदारनाथ आज भी खस्य मंदिर के रूप में व्यवस्थित है ..... ऐसा प्रतीत होता है कि बौध और वैष्णवों के बीच के शास्त्रार्थ में कभी शैवो तथा शक्तों ने प्रतिभाग किया ही नहीं ... बौध तंत्र शाखा ने भी शैव तथा शाक्त तंत्रों को आधार बना कर , इन प्राचीन मंदिरों को इनके ही स्वरुप में स्वीकार कर लिया .... कुछ भोट कथाओं में बुधान ( बुगानी ) और काली  का उल्लेख मिलता है ...धारी मंदिर क्षेत्र  गोरखाली के समय तक भोट व्यापारियों के लिए एक आश्रय स्थल के रूप में था , जहाँ उनकी ,माया देवी का यंत्र भी था .. यही माया देवी के यंत्र के ऊपर प्राचीन धारी मंदिर तथा वर्तमान बांध अवस्थित होना चाहिए .......




खैर ... हम अभी अपना ध्यान भानाधार पर केन्द्रित करते हैं ... भानाधार शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है "भाना" और "धार" ....भांडा शब्द से बर्तनों की और संकेत तथा धार शब्द से पहाड़ का कौना की और संकेत होता है ...गढ़वाल के इतिहास को पढ़ते समय मेरे समक्ष यह प्रश्न था कि इस विशेष भौगोलिक स्थिति वाले छोटे से गाँव के एतिहासिक पक्ष के अध्यन हेतु सामग्री कहाँ से प्राप्त की जाये ...मुझे ये सामग्री एशियाटिक सोसाइटी , मोलाराम की रचनाओं के अंश तथा ग्रामीण  प्रचलित कहानियों में मिली....बिखरे हुई शोध सामग्री के बावजूद जो दृश्य उभर कर आया वो भोगौलिक परिस्थिति के अत्यधिक अनुकूल है ... इसके बाद ही मेने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया ...भानाधार की स्थिति अगर आप देखे तो अलकनंदा के बहाव के विपरीत चलने पर  पंचभैया खाल के बाद जैसे ही रुद्रप्रयाग घाटी खुलती है , भानाधर के धार से इस घाटी के एक  वृहद् क्षेत्र और मार्गों पर नजर रखी जा सकती है .... इसके साथ ही यह धार हरियाली मंदिर क्षेत्र के अंतर्गत होना चाहिए ...पैदल  हरियाली मंदिर पहुचने के लिए पुनार,बरसू ,बौंठा जैसे गाँव से गुजरना पड़ता है ....हमारी पहली कहानी भी इसी से सम्बंधित है ....


श्रीनगर एक राजनीतिक तथा व्यापारिक केंद्र था , जो सहारनपुर , कनखल तथा भोट क्षेत्र को जोड़ने के मार्ग के बीच में स्थित एक विस्तृत घाटी है .... गढ़वाल राज्य को एकजुट करने के समय यह ध्यान रखा गया था कि प्राचीन मंदिरों के क्षेत्रों को राजा अपने राजस्व के अंतर्गत नहीं लेगा .....इन मंदिरों में बद्रीनाथ ( जिस पर भोट तथा ब्राह्मण सामान अधिकार रखते थे ) , केदारनाथ ( जो खस जाति का प्राचीन मंदिर था , तथा खस जाति ही यहाँ कि पंडित होती थी ) , शाक्त मंदिर जिनमे बौध तथा ब्राह्मण दोनों ही धर्मों के लोगों की सामान आस्था थी ... इन्ही शक्ति मंदिरों में एक मंदिर था जसोली का हरियाली मंदिर ....हरियाली और विष्णुमठ १०वीं शताब्दी के वे बौध मंदिर-शक्ति थे जिन्हें प्राचीनकाल से ही शक्ति के केंद्र के रूप में मान्यता थी,,, बौध धर्म जब यहाँ शकों के साथ आया तो ये मंदिर माया देवी के मंदिर के रूप में तंत्र साधना के केंद्र बन गए ... एक और प्रसिद्ध मंदिर कालीमठ भी इसी प्रकार के शक्ति केंद्र में से एक है ..... हो सकता है इनका नवीन इतिहास कनफड़ा बाबाओं तथा वैष्णव आचार्यों के प्रभाव के बाद परिवर्तित हुआ हो .... लेकिन इस बात के पर्याप्त तर्क हैं कि ये मंदिर बौधकाल के पूर्व से ही यहाँ थे , जिन्हें बौध की तंत्र शाखा ने भी शक्ति के केंद्र के रूप में मान्यता दी .....




जशोली की हरियाली देवी को गढ़वाल के राजा ने आधी धनपुर पट्टी तथा कुछ हिस्सा देवलगढ़ का भी दिया होगा .... जब यात्राकाल में भोट क्षेत्र के व्यापारी अपने समूहों के साथ श्रीनगर के लिए निकलते , तो वे तारा देवी ( विष्णु मठ )  तथा जशोली देवी ( हरियाली देवी ) के लिए भी हिस्सा साथ रखते .... हरियाली देवी वर्ष के नियत समय पर भानाधार में भोट मैतियों का इन्तजार करती ,,, जैसे ही ज्वार क्षेत्र और पंखुंडा से भोटों की व्यापारिक जात्रा सुमेरपुर पहुचती पुनाड या बरसू गाँव में रुकी हरियाली देवी के ढोल दमाऊ बजने लगते ... जिनकी आवाज भानाधार के तत्कालीन कलेक्टर जाति तक पहुचती और यहाँ  देवी के स्वागत में बर्तनों को बजाय जाता ....इन बर्तनों की आवाज इतनी तेज होती कि पंचभैया खाल ( उस समय इसका नाम बौध मत के समीप होना चाहिए तथा जहाँ तक मेरा अनुमान है ये बधानी या बधान होना चहिये , हो सकता है कोई गाँव आज भी यहाँ इन नामो का भ्रंश हो ) पहुचती थी .... जब भोट भानाधर पहुचते तो ईष्ट हरियाली देवी भी वहां पहुचती , देवी अपना हिस्सा मार्ग-कर के रूप में प्राप्त करती थी ... अनुमानत यह कुल माल का १/१० होना चाहिए , क्योंकि दाशान जैसे शब्दों का प्रयोग अहमे लोक गाथाओं में मिलता है .... देवी को कर चुकाने के बाद यह व्यापारी श्रीनगर में कोई कर नहीं देते थे .... हरियाली भी सिर्फ अपने मैती जाति के भोटों से ही कर लेती बाकि जाति के लोग अपनी परंपरा के अनुसार ही कर चुकाते थे ( कुछ कर मुक्त भी थे , जैसे बद्रीनाथ के पण्डे , मक्कुमठ के खाश पण्डे ) .....


देवी के भाण्डों (बर्तनों)  के स्थान के कारन यह क्षेत्र भानाधार कहलाया ...यह प्रथा बौध मत के प्रभाव के शून्य हो जाने पर भी चलती रही ... कालांतर में  कठेथ गर्दी के समय भी पट्टी नागपुर के वीर सिपाई पुरिया नैथानी के नेतृत्व में जब यहाँ से गुजरे तो भानाधार पर बर्तन बजा कर आगे सूचना दी गयी ( लेकिन इसके प्रमाण  हमारे पास नहीं है , सिर्फ कहानियो में ही इसका जिक्र है ) .... गोर्ख्याली के समय इस क्षेत्र को जशोली की देवी के प्रभाव क्षेत्र से हटा कर , रुद्रप्रयाग बाजार में नेपाली रानी के चौधरियों के अंतर्गत कर दिया गया ... रानी की एक धर्मशाला रुद्रप्रयाग में थी , जिसे शायद बाद में वापस बनाया गया ,,,लेकिन चौधरियों का परिवार आज भी यहाँ मौजूद है .... इसके आलावा भानाधार के पास कहीं एक सराय भी थी जो संगम क्षेत्र अथवा पुनाड गाँव से दूर थी ...यह सारे व्यापारियों तथा ऊँचे ओहदे के लोगों के मनोरंजन का स्थान रहा होगा , जहाँ हिमाचल की राजकुमारी के साथ आये खुबसूरत नृत्य करने वाले जाति के लोगों को बसाया गया होगा((उल्लेख मौलाराम ने किया है )) .....



ब्रिटिश काल में यह हरियाली देवी के द्वारा कर की उगाही बंद हो गयी . भोत यात्रियों का यहाँ से आना जाना भी बंद हो गया .... इसी काल में कहते हैं धारी देवी के नये रूप का अवतरण भी इस क्षेत्र में हुआ.... विष्णु मठ पूर्णत समाप्त हो गया तथा यहाँ बचे अंतिम बौध लामाओं ने भी तिब्बत की और प्रस्थान किया .... लेकिन एक लोक कहानी जशोली क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गयी .... भानाधार में निवास करने वाले लोगों को बाद में भी यहाँ से गुजरती हरियाली की डोली के स्वप्न आते रहे ... इसे ही लोगों ने अदृश्य डोली का नाम दिया .... यह अदृश्य डोली और कुछ नहीं मार्ग-कर लेने यहाँ पहुचने वाली हरियाली देवी की उस प्रथा का बचा अंश है , जिसे शायद बौध प्रभाव के बाद से गोर्ख्याली तक निभाया गया ,,,, इस पर अधिक शोध अभी किया जाना है ....