Monday 10 November 2014

कहीं उधार कर न बैठो तुम ....

पहाड़ों में सुनियोजित तरीके से गुपचुप बसाई जा रही बस्तियों से खौफ़जदा हूँ .. डर देश के लिए है ,क्योंकि सीमा 
खिड़की खुलते ही लगती है ...सेक्युलर वोट बैंक का चक्कर कहीं हिमालय को ज्वालामुखी न बना दे ... खौफ़जदा हूँ मैं ...




चुप हैं मगर जिन्दा हैं हम 

भले राख से दिखते हैं

मगर अंदरखाने कहीं 
सुलगते हैं हम ..अभी जिन्दा हैं हम 

वो देखों जो बैठा है 
पैर पसार गंगा में 
वो सैलानी नहीं 
बसने आया है इधर

संभलना कि कहीं कल को
सब खो न बैठो तुम
इस शहर ,इस फिज़ा से
हाथ धो न बैठो तुम
वो सिर्फ बसने ही आया है
ये जरा पूछ तो लो
मुझे डर है कहीं उससे
उधार कर न बैठो तुम

मुझे डर है कहीं उससे
उधार कर न बैठो तुम 

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